Tuesday, September 1, 2015

और कितना चलना है बाकि

एक अजब सी मिटटी
एक अजब चेहरा
कुछ दोस्ताना व्यक्तित्व
कुछ भयानक

एक दबी सी आस लेके हम सब चले जाते हैं
राहें मिलती और जुदा होती जाती हैं
अनगिनत सवाल होते हैं मन में
कुछ क उत्तर मिल जाते हैं
और कुछ साँझ के जैसे ही ढल जाते हैं

किन्तु एक प्रश्न जो मानो पत्थर की लकीर की तरह
कभी सताता है तो कभी नहीं
कभी जवाब मांगता है तो कभी नहीं
इतना कुछ कर लिया
इतना कुछ हो गया
इतनों से मिल लिए
इतनों को खो दिया
सवेरे की साँझ हो गयी
फिर चांदनी भी किरणों में खो गयी

कुछ ख्वाब मालूम हैं ख्वाब ही रह जायेंगे
कुछ को पूरा करते करते हम खुद ही खुद का ख्वाब बन जायेंगे

और कितनी दूर है मंज़िल
क्या देखना है बाकी
कितनी दूर है साथ इस राह का
और कितना चलना है बाकि?

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